AFSPA का विस्तार: मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में छह महीने की नई चुनौती?
भारत सरकार ने एक बार फिर सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) को मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में छह महीने के लिए बढ़ा दिया है। यह अधिनियम दशकों से विवादों में रहा है, क्योंकि एक तरफ यह सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर इसे मानवाधिकार उल्लंघन का एक प्रमुख कारण भी माना जाता है।
AFSPA क्या है?
AFSPA (Armed Forces Special Powers Act) 1958 में लागू किया गया एक विशेष कानून है, जिसे सरकार अशांत क्षेत्रों में लागू करती है। यह अधिनियम सशस्त्र बलों को विशेष शक्तियां प्रदान करता है, जैसे:
किसी को भी बिना वारंट गिरफ्तार करना
किसी भी संपत्ति की तलाशी लेना
संदेह होने पर गोली मारने का अधिकार
इस कानून का मूल उद्देश्य आतंकवाद और उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सेना को विशेष अधिकार देकर शांति बहाल करना है। लेकिन यह भी सच है कि कई बार सुरक्षा बलों के इस कानून के दुरुपयोग के मामले सामने आए हैं।
क्यों बढ़ाया गया AFSPA?
सरकार ने AFSPA को मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में छह महीने के लिए बढ़ा दिया है। इसके पीछे कई कारण हैं:
1. असमाजिक तत्वों का बढ़ता प्रभाव – पूर्वोत्तर राज्यों में उग्रवाद की गतिविधियों में कमी जरूर आई है, लेकिन अब भी कई उग्रवादी गुट सक्रिय हैं।
2. आंतरिक अशांति – मणिपुर में जातीय हिंसा और नागालैंड में विद्रोही संगठनों के कारण अस्थिरता बनी हुई है।
3. चीन सीमा से सटे इलाके की संवेदनशीलता – अरुणाचल प्रदेश का चीन से सटा होना भारत की सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण है।
4. राजनीतिक अस्थिरता – क्षेत्रीय राजनीति में अस्थिरता के कारण कई जगहों पर कानून-व्यवस्था बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
AFSPA का प्रभाव: जनता और सेना के नजरिए से
1. जनता की पीड़ा और मानवाधिकार उल्लंघन
AFSPA से सबसे ज्यादा प्रभावित आम जनता होती है। इसके कारण कई गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के मामले सामने आए हैं, जैसे:
बिना सबूत गिरफ्तारी – कई निर्दोष लोगों को उग्रवादी बताकर गिरफ्तार किया गया।
यातना और फर्जी मुठभेड़ – मणिपुर में 2012 में "फर्जी मुठभेड़" का मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, जहां सशस्त्र बलों की भूमिका पर सवाल उठे।
महिलाओं के खिलाफ अत्याचार – मणिपुर की 'इरोम शर्मिला' ने 16 साल तक भूख हड़ताल रखी, क्योंकि इस कानून के कारण महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले बढ़े।
2. सेना का पक्ष: AFSPA क्यों जरूरी?
हालांकि, भारतीय सेना और सरकार इसे सुरक्षा के लिए जरूरी मानती हैं। उनका तर्क है कि:
आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन आसान होता है।
सीमा पर घुसपैठ रोकने में मदद मिलती है।
सुरक्षा बलों को कानूनी सुरक्षा मिलती है, जिससे वे बिना किसी डर के कार्रवाई कर सकते हैं।
AFSPA के विरोध में आंदोलन और जनभावना:-
AFSPA के खिलाफ सबसे बड़े आंदोलन मणिपुर, नागालैंड और जम्मू-कश्मीर में हुए हैं।
इरोम शर्मिला का संघर्ष – मणिपुर की "आयरन लेडी" इरोम शर्मिला ने 2000 से 2016 तक इस कानून के खिलाफ अनशन किया।
2012 का सुप्रीम कोर्ट फैसला – अदालत ने कहा कि AFSPA के तहत की गई हर हत्या की स्वतंत्र जांच जरूरी है।
2021 नागालैंड गोलीकांड – सुरक्षा बलों द्वारा 14 निर्दोष नागरिकों की हत्या के बाद AFSPA के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज हुए।
राजनीतिक दलों का नजरिया:-
AFSPA पर विभिन्न राजनीतिक दलों के मत अलग-अलग हैं:
भाजपा – इसे सुरक्षा के लिए जरूरी मानती है और सीमावर्ती राज्यों में लागू रखने के पक्ष में है।
कांग्रेस – कई बार इसका विरोध कर चुकी है, लेकिन सत्ता में रहते हुए इसे हटाने का ठोस कदम नहीं उठाया।
स्थानीय पार्टियां – अधिकतर पूर्वोत्तर की पार्टियां AFSPA को हटाने की मांग करती हैं।
क्या AFSPA हटाया जा सकता है?
AFSPA को पूरी तरह हटाने के लिए सरकार को कुछ बड़े कदम उठाने होंगे:
1. स्थानीय पुलिस और प्रशासन को मजबूत करना।
2. उग्रवादी संगठनों से बातचीत को प्राथमिकता देना।
3. सुरक्षा बलों को जवाबदेह बनाना।
4. मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में त्वरित न्याय सुनिश्चित करना।
हालांकि, सरकार ने हाल के वर्षों में AFSPA को कुछ इलाकों से हटाने की कोशिश की है। 2022 में असम, नागालैंड और मणिपुर के कुछ हिस्सों से इसे आंशिक रूप से हटा दिया गया था।
निष्कर्ष: क्या AFSPA समाधान है या समस्या?
AFSPA एक ऐसा कानून है जो सुरक्षा के नाम पर लागू किया गया था, लेकिन वर्षों से यह सवालों के घेरे में रहा है। एक ओर, यह सुरक्षा बलों को आतंकवाद और उग्रवाद से लड़ने की शक्ति देता है, वहीं दूसरी ओर, आम जनता के अधिकारों का हनन भी होता है।
अगर सरकार वास्तव में स्थायी शांति चाहती है, तो केवल AFSPA लागू करने से बात नहीं बनेगी। इसे हटाने से पहले सुरक्षा तंत्र को मजबूत करना जरूरी होगा, ताकि आम जनता भी सुरक्षित महसूस कर सके और देश की संप्रभुता भी बनी रहे।
अब समय आ गया है कि सरकार इस कानून की समीक्षा करे और एक ऐसा समाधान निकाले जो सुरक्षा और मानवाधिकारों के बीच संतुलन बना सके।
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